आज़ादी और औरतें
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का ख़्वाब था कि आज़ाद भारत प्रगतिशील व आधुनिक विचारों पर आधारित ऐसा मुल्क बने जिसमें सबके लिए समता और सामाजिक न्याय सुलभ हो और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण कतई संभव न रहे। आज़ादी की तीन चौथाई सदी पार करने वाले भारत में सामाजिक-आर्थिक समानता, न्याय व स्वतंत्रता न केवल मजदूर, […]
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का ख़्वाब था कि आज़ाद भारत प्रगतिशील व आधुनिक विचारों पर आधारित ऐसा मुल्क बने जिसमें सबके लिए समता और सामाजिक न्याय सुलभ हो और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण कतई संभव न रहे।
आज़ादी की तीन चौथाई सदी पार करने वाले भारत में सामाजिक-आर्थिक समानता, न्याय व स्वतंत्रता न केवल मजदूर, वंचित व गरीब वर्ग का मसला है बल्कि कई जातियों, विभिन्न नस्लों, धार्मिक मतों व समुदायों, संघर्षरत आदिवासियों, महिलाओं, लिंग आधारित भेदभाव व नये संदर्भों में तो लैंगिकता का भी मसला है।
तमाम मतभेद ,लड़ाई-झगड़ों के बावजूद दुनिया के लगभग सभी धर्म, जाति,नस्ल व देश औरतों के प्रति लगभग एक जैसी सोच के वाहक रहे हैं। अरस्तू जैसा महाविद्वान औरतों को पुरुष की अतिरिक्त हड्डी से निर्मित मानता था। वह औरत को पुरुष के अधीनस्थ अथवा भोग्या के रूप से ज्यादा स्वीकार न कर सका, अरस्तू के लिए औरत निष्क्रिय पदार्थ थी और पुरुष था शक्ति,गति व जीवन। वहीं प्लेटो ने ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा यह मानी कि ईश्वर ने उसे स्वतंत्र रूप में जन्म दिया (अर्थात दास रूप में नहीं )। प्लेटो ने ईश्वर की दूसरी अनुकंपा जानते हैं क्या मानी? यही कि ऊपर वाले ने उसे औरत नहीं पुरुष बनाया। औरतों के प्रति डार्विन, संत अगेस्ताईन, रूसो व जे.एस.मिल जैसे इतिहास पुरुषों के भी विचार कम ज़हरीले नहीं थे। एक नारीवादी क्रांतिकारी के शब्दों में
“अब तक औरत के बारे में पुरुष ने जो कुछ भी लिखा है उस पूरे पर शक किया जाना चाहिए, क्योंकि लिखने वाला न्यायधीश और अपराधी दोनों ही है।’’
यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इतिहास में धार्मिक पुस्तकें, उपदेश, ग्रन्थ, शास्त्र, कथा-प्रवचन, नाना प्रकार के आचार-विचार, स्मृतियाँ-संहिताएँ सभी शामिल हैं, जिन्होंने हर काल में न केवल पितृशाही को बेहद सूक्ष्म चालबाज़ी के साथ प्रचारित-प्रसारित करने का काम किया बल्कि इस ग़ैर-बराबरी आधारित व्यवस्था को निरन्तर मज़बूत भी किया। शताब्दियों के इस व्यवस्थित षड़यंत्र ने महिलाओं को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, संगठनात्मक व वर्गीय चेतना के आस-पास भी फटकने नहीं दिया।
दुनिया की तमाम बहादुर औरतों ने दुनिया भर की औरतों के हक़,बराबरी और आज़ादी की लड़ाई व आंदोलनों का अलग इतिहास रचा है। 1792 में मैरी वुल्स्टन क्राफ्ट ने अपनी किताब ‘विंडीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वुमन’ लिखकर महिलाओं के बारे में दार्शनिकों, विचारकों, धर्म प्रचारकों की दुराग्रही मान्यताओं को पहली व्यवस्थित व तार्किक चुनौती देने का बिगुल फूंका। पुरुषवादी तंत्र की पोल खोलती यह किताब ‘महिला अधिकारों की बाइबल’ कहलाई और भविष्य के महिला मुक्ति आन्दोलनों की अवधारणाओं का तार्किक बल बनी। निश्चित ही महिला मुक्ति आंदोलनों के सुर में सुर मिलाकर लड़ने वाले पुरूषों के प्रति अनुग्रह का भाव अमर रहेगा। पश्चिम में जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी किताब “द सब्जेक्शन ऑफ़ वुमन” में अपने पिता जे. एस.मिल की महिला विरोधी धारणाओं से बग़ावत कर स्त्री मुक्ति बहस व आंदोलन को जोश व ताक़त देने का काम किया।
वहीं भारत में 19वीं व 20वीं सदी में अनेक प्रगतिशील सुधारवादी नेताओं ने स्त्री और वंचित वर्ग के अधिकारों व मुक्ति के लिए आंदोलनों के नेतृत्व का बीड़ा उठाया क्योंकि स्त्री वर्ग, वंचित जातियों और दमित वर्गों के सामाजिक सशक्तिकरण व भागीदारी के बिना आज़ादी की लड़ाई में सामूहिकता, एकता व राष्ट्रीयता के भाव कमज़ोर ही जान पड़ते थे। महात्मा ज्योतिबा फुले,ई. रामास्वामी पेरियार व बाबा साहेब अंबेडकर जैसे तार्किक चिंतकों के संघर्षों का ही फ़ल है कि आज़ाद भारत लैंगिक बराबरी के जनतांत्रिक लक्ष्य को लेकर चल सका।
और यह भी विडंबना ही है कि लड़कियों को सत्यवान की पत्नी सावित्री की कहानी तो खूब श्रद्धाभाव से सुनाई व सिखाई जाती रही है किंतु क्रांतिकारी सावित्री बाई ( फुले ) की कहानी के लिए आज भी पन्ने टटोलने की ज़रूरत पड़ती है।
ग़ुलाम ही नहीं आज़ाद लोकतांत्रिक भारत में भी शैक्षिक ,आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक मसलों में आधी आबादी यानी महिलाओं की भागीदारी कभी भी संतोषजनक व न्यायपूर्ण नहीं रही है। आँकड़ों की नज़र से देखे तो यह आज़ाद मुल्क लैंगिक बराबरी के लक्ष्य से मीलों दूर खड़ा है।
संसद के शीतकालीन सत्र 2022 में तत्कालीन कानून एवं विधि मंत्री किरन रिजिजू ने लोकसभा के एक सवाल के जवाब में बताया की लोकसभा में महिला सांसदों का प्रतिशत 14.94 तथा राज्यसभा में यह प्रतिशत 14.05 है l वहीं राज्य विधानसभाओं में महिला विधायकों के प्रतिनिधित्व को देखें तो सबसे अधिक यानी 14.44 प्रतिशत महिला विधायक छत्तीसगढ़ विधानसभा पहुँचने में कामयाब रहीं ।पिछले विधानसभा चुनावों में 40 विधानसभा सीटों वाले मिजोरम में शून्य तथा 60 विधानसभा सीटों वाले नागालैंड में महज़ 1 महिला विधायक चुनी गयीं l
2022 में अरुणाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव का ज़िक्र महिलाओं के मतदाता व नेता के रूप में भूमिका बयान करने के लिए पर्याप्त है राज्य में महिला मतदाता की संख्या पुरुषों से अधिक पायी गई। वहीं जब नेतृत्व में भागीदारी की बारी आयी तो मात्र 11 महिला प्रत्याशी ही मैदान में देखने को मिलीं जिनमें से मात्र तीन को जीत हासिल हुई। मातृवंशीय राज्य के रूप में प्रसिद्ध आदिवासी बहुल राज्य मेघालय में 60 में से 55 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में 370 आदिवासी उम्मीदवार मैदान में थे जिनमें केवल 32 आदिवासी महिलाओं को प्रतिनिधित्व के काबिल समझा गया जिनमें से मात्र 4 महिलायें निर्वाचित हो सकीं। कमोबेश सभी राज्यों में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं की राजनैतिक, सामाजिक भागीदारी ऐसी ही पिछड़ी हालत में है।
ऑक्सफॉम इंडिया,2021 की रिपोर्ट के अनुसार वर्कफ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी मात्र 25 % पायी गयी जो कि विश्व में सबसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यस्थाओं में सबसे निचले पायदान पर है। वहीं पुरूषों के मुक़ाबले महिलाओं को 67% कम वेतन में ही काम चलाना पड़ता है। ऑक्सफॉम इंडिया के चीफ़ एग्जीक्यूटिव अमिताभ बहर के अनुसार “वर्कफ़ोर्स में महिलाओं या अन्य वंचित जातीय वर्ग की कम भागीदारी के पीछे का कारण शिक्षा या अनुभव का अभाव होना नहीं है बल्कि इसके पीछे का कारण लैंगिक व जातीय भेदभाव ही है।” 2017-18 के श्रम बल सर्वे के अनुसार 73.2 फ़ीसदी ग्रामीण महिलायें खेतीहर मज़दूर हैं किंतु ज़मीन का मालिकाना हक़ महज़ 12.8 फ़ीसदी के ही पास है ।
आंकड़े बोलते हैं कि मतदान में महिलाएँ बढ़-चढकर हिस्सा ले रही हैं किंतु जब-जब संसद में राष्ट्रनिर्माण में उनकी भूमिका को सुनिश्चित करने की बात आती है तो 33 % आरक्षण के लिए उन्हें 76 साल से बरगलाया जा रहा है। तथ्यों की रौशनी में दावा किया जा सकता है इस देश को सींचने में हर वर्ग, जाति की महिलाओं ने कम क़ुर्बानियाँ नहीं दी हैं। काल की गणना की शुरुआत से यह देश जितना पुरुषों का रहा है उतना ही औरतों का भी, बावजूद इसके आज़ाद भारत में औरतों को नेतृत्वकारी भूमिकाओं में बराबर का भागीदार बनाने में हुक्मरानों की ओर से इतनी देरी और आनाकानी क्यों?
औरतों की स्थिति पर उनकी जाति, समुदाय, वर्ग का सीधा असर पड़ता है मसलन दलित महिलाएँ समाज में जाति, लिंग व ग़रीबी की तिहरी मार की शिकार हैं। एक तरफ़ दलित महिलाएँ गरिमापूर्ण जीवन के लिए संघर्षरत है वहीं दूसरी तरफ़ 21वीं सदी के भारत में समलैंगिक व ट्रांस महिलायें भी लोकतांत्रिक व मानवीय अधिकारों से वंचित हैं जिनके अधिकारों की सुरक्षा के मसले को बहस के केंद्र में लाने की दरकार है।
बेशक शहरीकरण, बाज़ारीकरण,मशीनीकरण ने ख़ानपान, कपड़े -पोशाक, रहन-सहन के व्यवहारों को प्रभावित किया है और तकनीकी संसाधनों के इस्तेमाल ने अवश्य ही समरूपता और जानकारी की व्यापकता को बढ़ावा दिया है किंतु मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक ज़मीन पर हक़ीक़त के आँकड़े आज भी कुरूप व भयावह है।
हाशिये के वर्गों की आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक भागीदारी व अधिकार सुनिश्चित करना लोकतांत्रिक सरकार की इच्छाशक्ति व नियत पर निर्भर करता है। वहीं जनता की मनोवैज्ञानिक सरंचना भी समतामूलक समाज या इसके उलट अन्यायपूर्ण समाज बनाने में किसी भी तरह कम महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं करती है। किसी भी समाज में दो तरह के लोग होते हैं, एक वह जो भेदभावमूलक परंपराओं, रूढ़ियों, विश्वासों को धर्म व संस्कृति के नाम पर उचित ठहराते हुए उन्हें बिना उफ़्फ़-बिना आह किए अगली पीढ़ियों तक ढोते जाते हैं, क्योंकि शायद ऐसा करने से उनका कम्फ़र्ट ज़ोन ब्रेक नहीं होता और सामाजिक स्वीकार्यता तो बोनस में मिलती है। वहीं दूसरे लोग जो हर देश में, हर काल में, हर परिस्थिति में समाज में क्रांतिकारी बदलाव के वाहक बनते हैं, ऐसे लोग ही ठहरे हुए पानी में जहाज़ ठेलने का ज़िम्मा लेने का ख़तरा उठाकर प्रगतिशील समाज के प्रतिनिधि बनते हैं। हमें तय करना है कि हम ख़ुद को किस तरह के समूह में शामिल देखना चाहते हैं।
एक ओर आज़ादी व लोकतंत्र को असल मायने देने के लिए सत्ता, नेतृत्व व आम समाज के सभी क्षेत्रों में तीव्र व सकारात्मक बदलाव की पुरज़ोर पैरवी करने वाले प्रगतिशील नागरिकों की दरकार हैं वहीं दूसरी तरफ़ मिसोजनिस्ट तंत्र को ध्वस्त करने के लिए ज्यादा से ज्यादा औरतों का शिक्षित, सजग व संगठित होना ज़रूरी शर्त है।
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